अलाऊद्दीन खिलजी की बाजार नियंत्रण नीति in Hindi

  अलालुदीन खिलजी की बाजार नियंत्रण नीति in hindi परिचय  • अलालुद्दीन खिलजी, खिलजी वंश का शासक था , जो की अपनी शक्ति से सम्पूर्ण भारत पर अपना अधिकार करना चाहता था इसलिए अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली सल्तनत का शासक होते हुए स्वयं को अपारशक्तिशाली बनाने के लिए कई योजनाएं बनाई थी जिसमे से  उसकी " बाजार नियंत्रण नीति व योजना " इतिहास में अत्यधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि ये योजना का वर्तमान अर्थ व्यवस्था में भी उपयोग होता है ।  [ बाजार नियंत्रण नीति अपनाने का कारण ] 1. आर्थिक स्थिति को लंबे समय के लिए मजबूत बनाने  रखने की सोच :  अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली सल्तनत का शासक होते हुए बाहरी अभियान किए थे जिसमे उसको अपार धन खर्च करना पड़ा था ।  2. स्थायी सैन्य व्यवस्था की स्थापना : अलाउद्दीन को स्मरण था की विश्व विजय प्राप्त करने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसके पास विशाल सेना होने के साथ ही साथ दिल्ली सल्तनत में एक बड़ी , बलवान , सशस्त्र स्थायी सेना का होना अत्यधिक महत्वपूर्ण है अर्थात अलाउद्दीन के लिए महत्वपूर्ण था कि वो दिल्ली में स्थायी सेना को सुसज्जित करक...

1861 भारत परिषद अधिनियम की धाराएं

  1861 भारत परिषद अधिनियम की धाराएं 

1861 का भारत परिषद अधिनियम 


1861-भारत-परिषद-अधिनियम-की-धाराएं


परिचय 

इस अधिनियम के पारित होने के बावजूद भी भारतीय शासन पद्धति में कई दोष थे , जिनका उपाय किया जाना अत्यंत ही आवश्यक था , इनमे से कुछ प्रमुख दोष इस प्रकार थे  -

1- 1858 के अधिनियम के द्वारा केवल उन निर्देशन और आदेशों में ही परिवर्तन हुआ जो की इंग्लैंड से होते थे तथा भारतीय असंतुष्ट थे , व सुधार करना चाहते  थे इसका कारण यह था की इस अधिनियम का भारतीय प्रशासनिक प्रणाली पर कुछ खास असर नहीं पड़ा था।


2 -  1857 की क्रांति ने इस बात को स्पष्ट कर दिया की भारतीय संवैधानिक प्रणाली से भी नाखुश थे , तथा उसमे संशोधन चाहते थे ।

भारतीय संवैधानिक प्रगति करने के लिए ,भारतीय संविधान सभा की सदस्यता चाहते थे। परंतु 1858 के अधिनियम के कारण भारतीय इस अधिकार से वंचित रह गए । 


1858 में इंग्लैंड की संसद में यह मामला उठाया गया । लेकिन जहां एक ओर ग्लेडस्टन यह कहकर ऐसा करने से इनकार किया की : "जब भारत का एक बड़ा भाग अभी भी अंग्रेजो का विरोध कर रहा है तो ऐसे भारतीयों को प्रतिनिधित्व प्रदान करना उचित नहीं होगा।"  वही दूसरी तरफ सय्यद अहमद खान का मानना था की "यदि काउंसिल में एक भी हिंदुस्तानी सदस्य होता है तो जनता कभी हथियार उठाने की गलती न करती। " 

• अंग्रेज भी भारतीयों को प्रतिनिधित्व देना ,इस समय तक आवश्यक समझने लगे थे । 

3- रेग्युलेटिंग अधिनियम के द्वारा शक्तिकरण की प्रक्रिया 1833 के चार्टर अधिनियम के द्वारा भारत में पूरी हुई । इसका कारण यह था की , भारत में ब्रिटिश एकसमान नियम लागू कर सके। 


∆ लेकिन इस व्यवस्था में निम्नलिखित दोष थे  -

✓ गवर्नर जनरल की लेजिस्टेटिव काउंसिल अत्यंत बलशाली हो चुकी थी। इसे मिनी संसद भी कहा जाने लगा था क्युकी नौबत यह तक आ चुकी थी की कई बार वह गवर्नर - जनरल का आदेश मानने से भी मना कर देती थी।


प्रांतीय सरकार को इस बात की अनुभूति होने लगी की वह बंगाल कौंसिल के आधीन हो चुकी है । जिस कारण वे शिकायते करने लगे। 


प्रांतो की आवश्यकताओं की पूर्ति नियम पारित करने में हेतु मिनी संसद  असफल रही । 


∆ लॉर्ड केनिंग (जो की भारत के वायसराय थे) ने 1060 में भारत के सचिव को एक पत्र लिखा ,जिसने भारतीयों की समस्याओं और उनके निवारण से सचिव को अवगत कराया । भारत सचिव ने इन्ही निवारणों को आधार बनाते हुए एक विधेयक तैयार किया को 6 जून 1861 को संसद में प्रस्तुत हुआ, जो की पारित होने के बाद 1861 का भारतीय अधिनियम कहलाया । 


  

[भारत परिषद अधिनियम , 1861 की मुख्य धाराएं ]

1861 की मुख्य धाराएं निम्नलिखित थी - 

1 - वायसराय की कार्यकारिणी सभा के सदस्यों की संख्या 4 थी जिसे बढ़ा कर 5 कर दी गई । 


2 - लेजिस्टेटिव कौंसिल की संख्या भी बढ़ाई गई जो की कानून बनाने हेतु थी ,इसमें अब 6 या उससे अधिक 12 सदस्यों की संख्या बढ़ाई जा सकती थी ।वायसराय इनकी नियुक्ति करता था ,और इनका 2 वर्ष का कार्यकाल होता था , इनमें भारतीय सदस्य भी होते थे । 


3- लेजिस्टेटिव कौंसिल के विशेष सदस्य के रूप में भारत मंत्री कमांड - इन - चीफ की नियुक्त कर सकते थे । 


4 - गवर्नल जनरल को नियम पारित करने का अधिकार प्राप्त हुआ, जो अपनी गैरहाजिरी में कौंसिल के किसी भी सदस्य को सभापति बना सकता था। 


  इसके अलावा कार्य विभाजन का अधिकार भी गवर्नर जनरल को प्राप्त हुआ । 


• वायसराय को अकेले कोई भी कानून पारित करने का अधिकार न था । 

इस तरह विभाग प्रणाली का जन्म हुआ । 


5 - लेजिस्टेटिव कौंसिल को ,कार्य पालिका के कामों में किसी भी प्रकार का हस्ताच्छेप करने की अनुमति नहीं थी । उसे केवल कानून बनाने का ही अधिकार प्राप्त था । गवर्नर जनरल को अध्यादेश जारी करने व कॉन्सिल के किसी भी नियम को अस्वीकार करने का अधिकार था । 


6 - हर प्रांत के गवारनल को अपनी परिषद में 4 या अधिक से अधिक 8 सदस्यों को नियुक्त करने का अधिकार था , तथा परिषद  द्वारा प्रांत के लिए कानून बनाए जाने पर अंतिम स्वीकृति वायसराय की होती थी । 


7- किसी भी प्रांत की सीमा को घटना - बढ़ाना अथवा विभाजन करने की स्वीकृति वायसराय को थी।


8- सार्वजनिक रीढ़,मुद्रा,अर्थ, धर्म,डाकखाने ,तार आदि कुछ विशेष विभागों और कुछ विषयो के अतिरिक्त दूसरे विषयो में प्रांतीय भेदभाव नही किया गया । 


[ भारत परिषद अधिनियम ,1861 को क्यों आलोचित किया गया  ] 

जहा इस नियम के तहत भारतीयों को भी लेजिस्टेटिव कॉन्सिल का सदस्य बनाया गया वही वायसराय केवल ऐसे लोगो को  कॉन्सिल का सदस्य बनाया था जो की भारत की समस्याओं के विषय में जानकर नही थे और न ही भारतीयों के हित में बोलते थे । इनमे राजा, नवाब और अन्य धनी लोग होते थे । 

इसके अलावा गवर्नर जनरल को अत्यधिक शक्तियां प्राप्त हुई , जिसके कारण वह सर्वशक्तिमान बना । यह नियम भारतीयों की आशाओं पर खरा न इतर सका, और न ही उनकी अपेक्षाओं की पूर्ति कर सका । इन अधिनियम की सुविधाएं भारतीय हेतु नम्मकता की  ही थी ।


[ भारत परिषद अधिनियम,1861 का महत्व ] 


• भारतीय इस नायक के द्वारा संवैधानिक कार्यों के भागीदार बने । 

• इस नियम की प्रशासनिक क्षमता में वृद्धि विधान - प्रणाली लागू करने के कारण हुई।

• प्रांतों को भी अपने प्रांत से संबंधित  कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हुआ ।


निष्कर्ष : भारतीय जनता इस अधिनियम से संतुष्ट थी क्यूंकि ईस्ट इंडिया कंपनी से भारतीयों को छुटकारा मिल गया था और सरकार से भारतीयों को मांगे स्वीकार होने की उम्मीद थी , भारतीयों को संवैधानिक कार्यों मे शामिल करवाने की शक्ति वायसराय के हाथों मे थी इसलिए लेजिस्टेटिव कॉन्सिल मे साधारण जनता को शामिल नहीं किया जाता था अर्थात अमीर व्यक्ति , बड़े बड़े नवाबों को ही काउन्सल का सदस्य बनाया जाता था जिन्हे राज्ये की समस्याओ को हल करने मे कोई रुचि न थी , इसलिए ये अधिनियम भारतीय जनता व भारत के लिए लाभहीन साबित हुआ |

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